झूठ बोलते थे फिर भी कितने सच्चे थे हम
ये उन दिनों की बात है जब बच्चे थे हम
बचपन की दोस्ती थी बचपन का प्यार था
तू भूल गया तो क्या तू मेरे बचपन का यार था
बचपन भी कमाल का था खेलते खेलते चाहें छत पर सोयें या ज़मीन पर आँख बिस्तर पर ही खुलती थी !!
चले आओ कभी टूटी हुई चूड़ी के टुकड़े से
वो बचपन की तरह फिर से मोहब्बत नाप लेते हैं |
खुदा अबके जो मेरी कहानी लिखना
बचपन में ही मर जाऊ ऐसी जिंदगानी लिखना!!
फ़रिश्ते आ कर उन के जिस्म पर खुशबु लगाते है
वो बच्चे रेल के डिब्बों मे जो झुण्ड लगाते है!!
जिंदगी फिर कभी न मुस्कुराई बचपन की तरह, मैंने मिट्टी भी जमा की खिलौने भी लेकर देखे।
बचपन के दिन भी कितने अच्छे होते थे
तब दिल नहीं सिर्फ खिलौने टूटा करते थे
अब तो एक आंसू भी बर्दाश्त नहीं होता
और बचपन में जी भरकर रोया करते थे
रोने की वजह भी न थी
न हंसने का बहाना था
क्यो हो गए हम इतने बडे
इससे अच्छा तो वो बचपन का जमाना था!!
तभी तो याद है हमे हर वक़्त बस बचपन का अंदाज, आज भी याद आता है बचपन का वो खिलखिलाना, दोस्तों से लड़ना, रूठना, मनाना।
कोई मुझको लौटा दे वो बचपन का सावन,
वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी।
लगता है माँ बाप ने बचपन में खिलौने नहीं दिए, तभी तो पगली हमारे दिल से खेल गयी।
तब तो यही हमे भाते थे,
आज भी याद हैं छुटपन की हर कविता,
अब हजारों गाने हैं पर याद नहीं,
इनमे शब्द हैं पर मीठा संगीत कहाँ.
बचपन से बुढ़ापे का बस इतना सा सफ़र रहा है
तब हवा खाके ज़िंदा था अब दवा खाके ज़िंदा हूँ।।
चुपके-चुपके , छुप-छुपा कर लड्डू उड़ाना याद है.
हमकोअब तक बचपने का वो जमाना याद है..!!
फिर से बचपन लौट रहा है शायद, जब भी नाराज होता हूँ खाना छोड़ देता हूँ।
मोहल्ले में अब रहता है
पानी भी हरदम उदास
सुना है पानी में नाव चलाने
वाले बच्चे अब बड़े हो गए |
चलो के आज बचपन का कोई खेल खेलें, बडी मुद्दत हुई बेवजाह हँसकर नही देखा।
आजकल आम भी पेड़ से खुद गिरके टूट जाया करते हैं, छुप छुप के इन्हें तोड़ने वाला अब बचपन नहीं रहा।
अजीब सौदागर है ये वक़्त भी
जवानी का लालच दे के बचपन ले गया.
बचपन के दिन भी कितने अच्छे होते थे, तब दिल नहीं सिर्फ खिलौने टूटा करते थे। अब तो एक आंसू भी बर्दाश्त नहीं होता और बचपन में जी भरकर रोया करते थे।
चलो के आज बचपन का कोई खेल खेलें,
बडी मुद्दत हुई बेवजाह हँसकर नही देखा.
कितने खुबसूरत हुआ करते थे बचपन के वो दिन, सिर्फ दो उंगलिया जुड़ने से दोस्ती फिर से शुरु हो जाया करती थी।
रोने की वजह भी न थी, न हंसने का बहाना था; क्यो हो गए हम इतने बडे, इससे अच्छा तो वो बचपन का जमाना था।
कितना आसान था बचपन में सुलाना हम को, नींद आ जाती थी परियों की कहानी सुन कर।
आजकल आम भी पेड़ से खुद गिरके टूट जाया करते हैं
छुप छुप के इन्हें तोड़ने वाला अब बचपन नहीं रहा.
बचपन में तो शामें भी हुआ करती थी, अब तो बस सुबह के बाद रात हो जाती है।
ज्यादा कुछ नही बदलता उम्र बढने के साथ, बचपन की जिद समझौतों मे बदल जाती है।
चले आओ कभी टूटी हुई चूड़ी के टुकड़े से, वो बचपन की तरह फिर से मोहब्बत नाप लेते हैं..
बचपन में भरी दुपहरी नाप आते थे पूरा गाँव, जब से डिग्रियाँ समझ में आई, पाँव जलने लगे।
बचपन समझदार हो गया,
मैं ढूंढता हू खुद को गलियों मे।।
बचपन में जहां चाहा हंस लेते थे जहां चाहा रो लेते थे, पर अब मुस्कान को तमीज़ चाहिए और आंसूओं को तनहाई।
दहशत गोली से नही दिमाग से होती है,
और दिमाग तो हमारा बचपन से ही खराब है.
बचपन से हर शख्स याद करना सिखाता रहा, भूलते कैसे है ? बताया नही किसी ने।
हंसने की भी, वजह ढूँढनी पड़ती है अब, शायद मेरा बचपन, खत्म होने को है।
दादाजी ने सौ पतंगे लूटीं टाँके लगे, हड्डियाँ उनकी टूटी, छत से गिरे, न बताया किसी को, शैतानी करके सताया सभी को, बचपन के किस्से सुनो जी बड़ों के।
वो बचपन की नींद अब ख्वाब हो गई, क्या उमर थी कि, शाम हुई और सो गये।
कई सितारों को मैं जानता हूँ बचपन से
कहीं भी जाऊँ मेरे साथ साथ चलते हैं |
बचपन भी कमाल का था खेलते खेलते चाहें छत पर सोयें या ज़मीन पर आँख बिस्तर पर ही खुलती थी !!
आसमान में उड़ती…
एक पतंग दिखाई दी…
आज फिर से मुझ को..
मेरी बचपन दिखाई दी..
कितने खुबसूरत हुआ करते थे बचपन के वो दिन सिर्फ दो उंगलिया जुड़ने से दोस्ती फिर से शुरु हो जाया करती थी
याद आता है वो बीता बचपन, जब खुशियाँ छोटी होती थी। बाग़ में तितली को पकड़ खुश होना, तारे तोड़ने जितनी ख़ुशी देता था।
रोने की वजह भी न थी न हंसने का बहाना था क्यो हो गए हम इतने बडे इससे अच्छा तो वो बचपन का जमाना था…..
ज्यादा कुछ नही बदलता उम्र बढने के साथ, बचपन की जिद समझौतों मे बदल जाती है।
होठों पे मुस्कान थी कंधो पे बस्ता था..
सुकून के मामले में वो जमाना सस्ता था..!!
कितने खुबसूरत हुआ करते थे बचपन के वो दिन ..!! सिर्फ दो उंगलिया जुड़ने से दोस्ती फिर से शुरु हो जाया करती थी ..!!
अब तक हमारी उम्र का बचपन नहीं गया घर से चले थे जेब के पैसे गिरा दिए
दुआएँ याद करा दी गई थीं बचपन में सो ज़ख़्म खाते रहे और दुआ दिए गए हम
माँ हैं मेरी न्यारी ममता की मूरत..सो जाऊँ रोज, देख सपन सलोने; उसकी गोदी में, सुकून से सर रखकर।
हंसने की भी, वजह ढूँढनी पड़ती है अब, शायद मेरा बचपन, खत्म होने को है।
भूक चेहरों पे लिए चाँद से प्यारे बच्चे बेचते फिरते हैं गलियों में ग़ुबारे बच्चे
गाँवो में है
फटेहाल नौनीहाल
व भूखा किसान
फिर भी हुक्म के तामील में
लिख रहे मेरा भारत महान
बचपन भी कमाल का थाखेलते खेलते चाहें छत पर सोयेंया ज़मीन परआँख बिस्तर पर ही खुलती थी !!
किसी नन्हे बच्चे की मुस्कान देख कर
किसी ने क्या खूब लिखा है
दौड़ने दो खुले मैदानों में
इन नन्हें कदमों को साहब
जिंदगी बहुत तेज भगाती है
बचपन गुजर जाने के बाद ।
मोहल्ले वाले मेरे कार-ए-बे-मसरफ़ पे हँसते हैं मैं बच्चों के लिए गलियों में ग़ुब्बारे बनाता हूँ
कितने खूबसूरत हुआ करते थे
बचपन के वो दिन,
सिर्फ दो उंगलियॉं जुड़ने से
दोस्ती फिर से शुरु हो जाया करती थी ।
कुछ पाने की आशा ना कुछ खोने का डर
बस अपनी ही धुन, बस अपने सपनो का घर
काश मिल जाए फिर मुझे वो बचपन का पहर
जब दिल ये आवारा था,
खेलने की मस्ती थी।
नदी का किनारा था,
कगज की कश्ती थी।
ना कुछ खोने का डर था,
ना कुछ पाने की आशा थी।
उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में, फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते।
बचपन में खेल आते थे हर इमारत की छाँव के नीचे…
अब पहचान गए है मंदिर कौन सा और मस्जिद कौन सा..!!
बचपन के दिन भी कितने अच्छे होते थे
तब दिल नहीं सिर्फ खिलौने टूटा करते थे
अब तो एक आंसू भी बर्दाश्त नहीं होता
और बचपन में जी भरकर रोया करते थे
दादाजी ने सौ पतंगे लूटींटाँके लगे, हड्डियाँ उनकी टूटी, छत से गिरे, न बताया किसी को, शैतानी करके सताया सभी को, बचपन के किस्से सुनो जी बड़ों के।
किसने कहा नहीं आती वो बचपन वाली बारिश, तुम भूल गए हो शायद अब नाव बनानी कागज़ की।
कोई मुझको लौटा दे वो बचपन का सावन,
वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी।
बचपन भगवान की दी हुई सबसे खूबसूरत कृति है।कागज़ के जहाज बरसात के पानी मे चलाकर, गली में सबसे अमीर हुआ करते थे।
काग़ज़ की कश्ती थी पानी का किनारा था
खेलने की मस्ती थी ये दिल अवारा था
कहाँ आ गए इस समझदारी के दलदल में
वो नादान बचपन भी कितना प्यारा था
बचपन भी कमाल का था
खेलते खेलते चाहें छत पर सोयें
या ज़मीन पर
आँख बिस्तर पर ही खुलती थी !!
चले आओ कभी टूटी हुई चूड़ी के टुकड़े से, वो बचपन की तरह फिर से मोहब्बत नाप लेते हैं।
कितने खुबसूरत हुआ करते थे बचपन के वो दिन
सिर्फ दो उंगलिया जुड़ने से दोस्ती फिर से शुरु हो जाया करती थी
जिस के लिए बच्चा रोया था
और पोंछे थे आँसू बाबा ने
वो बच्चा अब भी ज़िंदा है
वो महँगा खिलौना टूट गया
बचपन में तो शामें भी हुआ करती थी
अब तो बस सुबह के बाद रात हो जाती है
वो बचपन क्या था,
जब हम दो रुपए में जेब भर लिया करते थे।
वो वक़्त ही क्या था,
जब हम रोकर दर्द भूल जाया करते थे।
आजकल आम भी पेड़ से खुद गिरके टूट जाया करते हैं, छुप छुप के इन्हें तोड़ने वाला अब बचपन नहीं रहा।
याद आता है वो बीता बचपन, जब खुशियाँ छोटी होती थी। बाग़ में तितली को पकड़ खुश होना, तारे तोड़ने जितनी ख़ुशी देता था।
चलो, फिर से बचपन में जाते हैं
खुदसे बड़े-बड़े सपने सजाते हैं
सबको अपनी धुन पर फिर से नचाते हैं
साथ हंसते हैं, थोड़ा खिलखिलाते हैं
जो खो गयी है बेफिक्री, उसे ढूंढ लाते हैं
चलो, बचपन में जाते हैं।।
कितना आसान था बचपन में सुलाना हम को, नींद आ जाती थी परियों की कहानी सुन कर।
कितने खुबसूरत हुआ करते थे बचपन के वो दिन, सिर्फ दो उंगलिया जुड़ने से दोस्ती फिर से शुरु हो जाया करती थी।
एक इच्छा है भगवन मुझे सच्चा बना दो,
लौटा दो बचपन मेरा मुझे बच्चा बना दो।।
आजकल आम भी पेड़ से खुद गिरके टूट जाया करते हैं, छुप छुप के इन्हें तोड़ने वाला अब बचपन नहीं रहा।
लौटा देती ज़िन्दगी एक दिन नाराज़ होकर, काश मेरा बचपन भी कोई अवार्ड होता।
देखो बचपन में तो बस शैतान था, मगर अब खूंखार बन गया हूँ।
चले आओ कभी टूटी हुई चूड़ी के टुकड़े से, वो बचपन की तरह फिर से मोहब्बत नाप लेते हैं।
मोहल्ले में अब रहता है, पानी भी हरदम उदास; सुना है पानी में नाव चलाने वाले बच्चे अब बड़े हो गए।
बचपन से हर शख्स याद करना सिखाता रहा, भूलते कैसे है ? बताया नही किसी ने।
बचपन में तो शामें भी हुआ करती थी, अब तो बस सुबह के बाद रात हो जाती है।
बचपन के दिन भी कितने अच्छे होते थे, तब दिल नहीं सिर्फ खिलौने टूटा करते थे। अब तो एक आंसू भी बर्दाश्त नहीं होता और बचपन में जी भरकर रोया करते थे।
देर तक हँसता रहा उन पर हमारा बचपना, जब तजुर्बे आए थे संजीदा बनाने के लिए।
काग़ज़ की कश्ती थी पानी का किनारा था,
खेलने की मस्ती थी ये दिल अवारा था।
कहाँ आ गए इस समझदारी के दलदल में,
वो नादान बचपन भी कितना प्यारा था।
बचपन भी कमाल का था खेलते खेलते चाहें छत पर सोयें या ज़मीन पर, आँख बिस्तर पर ही खुलती थी।
दहशत गोली से नही दिमाग से होती है, और दिमाग तो हमारा बचपन से ही खराब है।
बचपन में जहां चाहा हंस लेते थे जहां चाहा रो लेते थे, पर अब मुस्कान को तमीज़ चाहिए और आंसूओं को तनहाई।
बचपन में भरी दुपहरी नाप आते थे पूरा गाँव, जब से डिग्रियाँ समझ में आई, पाँव जलने लगे।
सुकून की बात मत कर ऐ दोस्त, बचपन वाला इतवार अब नहीं आता।